काना में परिशुद्ध कुँवारी मरियम का कृत्य/योगदान

मेरा समय अभी नहीं आया है एसा कहकर पलटकर नीकल रहें येशु क्रिस्त, जब उनकी माँ ने प्रख्यापित किया कि "वह जो कहें उसे करें" उसके अनुसार फिर उन्होंने पानी को अंगुरी में क्यों बदल दिया? तो काना के विवाह में एसा क्या घटित हुआ जिसके कारण येशु क्रिस्त पानी को अंगुरी में बदलने के लिए राज़ी हुए?

काना में परिशुद्ध कुँवारी मरियम का कृत्य/योगदान

काना में परिशुद्ध कुँवारी मरियम का कृत्य/योगदान  

प्रभु के प्रत्येक कार्य का उनकी अनंत ज्ञान द्वारा निर्धारित समय होता है। उनके कार्य इस नियुक्त समय से पहले या समय के बाद नहीं किए जाएंगे और होंगे भी नहीं (सभोपदेशक 3:1, प्रवक्ता ग्रन्थ 35:15-17) प्रभु ने मनुष्य को जो कार्य सौंपे हैं उन्हें नियुक्त समय से पहले या बाद करने के लिए शैतान ही उकसाता हैं।

येशु क्रिस्त ने अपना सार्वजनिक जीवन प्रभु के कार्यों में लगे रहने के लिए व्यतीत किया। परन्तु हर एक कार्य जो पुत्र को इस धरती पर करना है, उसके लिए प्रभु पिता ने एक निश्चित समय निर्धारित किया है। येशु क्रिस्त ने घोषणा की कि वह प्रभु के कार्यों को पूरा करने के लिए 12 वर्ष की आयु में येरुशलम मंदिर में रुके। लेकिन वह अपनी माँ की बात मानकर घर वापस चले गये।  हम उन्हें अगले 18 वर्षों तक प्रभु के कार्यों में शामिल होने के लिए – लोगों को प्रभु पिता का वचन सुनाने और प्रभु के राज्य के कार्य करने के लिए – अपने घर से निकलते हुए नहीं देखते हैं। तो उस घटना के अगले दिन या अगले महीने या अगले वर्ष भी प्रभु के कार्यों में शामिल होने के लिए वे बाहर क्यों नहीं आये?

अपने बपतिस्मा और 40 दिनों की उपवास प्रार्थना के बाद भी, काना के विवाह में उन्होंने कहा कि उनका समय नहीं आया है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि, उन्होंने कुछ भी कहने या करने से इनकार कर दिया। इसके बावजूद, परिशुध्द मा ने उनसे यह क्यों कहा कि अतिथियों के पास दाखरस नहीं है? जब कि येशु क्रिस्त ने तब तक कोई भी चमत्कार नहीं किया था। तो फिर परिशुध्द मा ने उन लोगों से ऐसा क्यों कहा कि वे वैसा ही करें जैसा उनका पुत्र उनसे कहेगा?

क्या वह अपने बेटे के सामने मध्यस्थ की भूमिका निभा रही थी, जबकि उनका समय नहीं आया था, जैसा कि कई ईसाई धर्मशास्त्री सिखाते हैं? यदि ऐसा होता, तो इसे शैतान की प्रवृत्ति के रूप में देखा जा सकता है। क्योंकि शैतान ही है जो प्रभु के पुत्र को नियमित समय से पहले उनके बारे में लिखी गई बातों को पूरा करने के लिए उकसाता है। प्रभु के पुत्र अपने पिता द्वारा नियुक्त समय से पहले कुछ भी नहीं करेंगे और न ही कर सकते है। यह शैतान ही था जिसने येशु क्रिस्त को, जिन्होंने जैसे ही अपना 40 दिन का उपवास पूरा किया था, पत्थर को रोटी में बदलने और मंदिर के शिखर से कूदने के लिए उकसाया था। हालाँकि येशु क्रिस्त का जन्म राजा बनने के लिए हुआ था, लेकिन उनके पहले आगमन में प्रभु ने उन्हें जो उद्देश्य सौंपा था, वह यह था कि प्रभु की प्रजा के पापों का प्रायश्चित करने के लिए मरना। इसलिए जब लोग नियुक्त समय से पहले बलपूर्वक उन्हें अपना राजा बनाने वाले थे (वह अपने दूसरे आगमन में राजाओं के राजा के रूप में आते है), तो वह एकांत में पहाड़ पर चले गये (योहन 6:14-15)

हालाँकि, प्रभु पिता अपने एकमात्र पुत्र को, जिसके लिए लोग युगों से प्रतीक्षा कर रहे थे, एक साधारण व्यक्ति (परिशुध्द कुँवारी मरियम) के द्वारा, इस धरती पर, जो शैतान के अधीन है, भेजने के लिए मूर्ख या शक्तिहीन नहीं है। इसके अलावा, परिशुध्द माँ ने शाश्वत प्रभु वचन को अपने गर्भ में धारण किया और अपने विश्वास के माध्यम से अपने कुँआरापन का उल्लंघन किए बिना उन्हें जन्म दिया। यह कभी भी शैतान की इच्छा का पालन करने वाली कोई साधारन व्यक्ति नहीं हो सकती।  इससे भी अधिक, हम पहले ही देख चुके हैं कि बेटे ने अपनी माँ की आज्ञा का पालन किया जब उन्होंने उनसे 12 साल की उम्र में प्रभु के कार्यों में शामिल होने की अनुमति नहीं दी। वह इतना कमज़ोर नहीं है कि शैतान की आज्ञा माने।  इसके अलावा, उन्होंने घोषणा की कि उन्होंने जो कुछ भी कहा और किया वह उनके पिता की आज्ञा के अनुसार था (योहन 12:49-50)

येशु क्रिस्त ने पहले तो काना के विवाह में कुछ भी करने से इनकार कर दिया। लेकिन जब उनकी माँ ने वहाँ एकत्रित लोगों से उनकी आज्ञा के अनुसार करने को कहा तब उन्होंने प्रभु के राज्य का पहला कार्य क्यों किया? ऐसा कैसे हो सकता है कि उनका समय जो तब तक नहीं आया था, वास्तव में एक मिनट बाद आ गया? वहां ऐसा क्या हुआ जिसके कारण येशु क्रिस्त को पानी को अंगुरी में बदलने के लिए प्रेरित किया, और प्रभु द्वारा नियुक्त समय के संबंध में उनका कार्य कैसे उचित हो गया?

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यथार्थ मुक्ति संपूर्ण व्यक्ति की मुक्ति है, जिसमें शरीर, मन और आत्मा शामिल है।

वह अपनों के पास आया, और उसके अपने लोगों ने उसे स्वीकार नहीं किया। परन्तु जितनों ने उसे स्वीकार किया, और उसके नाम पर विश्वास किया, उन सभों को उसने प्रभु की सन्तान बनने का सामर्थ दिया (योहन १:११-१२)।

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